भारत के चार धामों में से एक है जगन्नाथपुरी। कहते हैं कि यहां बाकी के तीनों धाम जाने के बाद अंत में आना चाहिए। उड़ीसा राज्य में स्थित पुरी में श्रीजगन्नाथ मंदिर वैष्णव सम्प्रदाय का एक प्रसिद्द हिन्दू मंदिर है जो जग के स्वामी भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। जगन्नाथपुरी को धरती का वैकुंठ कहा गया है
पुराणों के अनुसार पुरी में भगवान कृष्ण ने अनेकों लीलाएं की थीं और नीलमाधव के रूप में यहां अवतरित हुए। उड़ीसा स्थित यह धाम भी द्वारका की तरह ही समुद्र तट पर स्थित है। जगत के नाथ यहां अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं। तीनों ही देव प्रतिमाएं काष्ठ की बनी हुई हैं। हर बारह वर्ष बाद इन मूर्तियों को बदले जाने का विधान है। पवित्र वृक्ष की लकड़ियों से पुनः मूर्तियों की प्रतिकृति बनाकर फिर से उन्हें एक बड़े आयोजन के साथ प्रतिष्ठित किया जाता है। वेदों के अनुसार भगवान हलधर ऋग्वेद स्वरूप हैं, श्री हरि (नृसिंह) सामदेव स्वरूप हैं, सुभद्रा देवी यजुर्वेद की मूर्ति हैं और सुदर्शन चक्र अथर्ववेद का स्वरूप माना गया है। यहां श्री हरि दारुमय रूप में विराजमान हैं। वर्तमान मंदिर का निर्माण कार्य कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंगदेव ने आरम्भ कराया था।
आपको बता दें कि रथय़ात्रा आषाढ़ की द्वितीया तिथि आज सुबह 3 बजकर 44 मिनट से प्रारंभ हो गई है और इसका समापन 8 जुलाई को सुबह 4 बजकर 14 मिनट पर होगी। आज के दिन पांच शुभ योग बन रहें हैं जो बहुत ही दुर्लभ है और ये हर राशि को सुख, शांति प्रदान करने वाले हैं।
दस दिन का पूरा शेड्यूल
रथ यात्रा का प्रारंभ आज (7 जुलाई 2024) – इस दिन भगवान जगन्नाथ, प्रभु बलराम और देवी सुभद्रा तीन रथों पर सवार होकर सिंहद्वार से निकलकर गुंडिचा मंदिर की ओर प्रस्थान करेंगे। 8 से 15 जुलाई 2024 तीनों लोग गुंडिचा मंदिर में रहेंगे, जहां पर भक्त इन तीनों का दर्शन कर सकते हैं। रथ यात्रा का समापन- 16 जुलाई 2024 को, इस दिन भगवान जगन्नाथ, प्रभु बलराम और देवी सुभद्रा तीनों वापस जगन्नाथ मंदिर आएंगे।
जगन्नाथ यात्रा का महत्व
भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन के रथ नीम की परिपक्व और पकी हुई लकड़ी से तैयार किए जाते हैं। इसे दारु कहा जाता है। रथ को बनाने में केवल लकड़ी को छोड़कर किसी अन्य चीज का प्रयोग नहीं किया जाता है। भगवान जगन्नाथ के रथ में कुल 16 पहिए होते हैं और यह बाकी दोनों रथों से बड़ा भी होता है। रथ यात्रा में कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं। मान्यता है कि इस रथ यात्रा का साक्षात दर्शन करने भर से ही 1000 यज्ञों का पुण्य फल मिल जाता है। जब तीनों रथ यात्रा के लिए सजसंवरकर तैयार हो जाते हैं तो फिर पुरी के राजा गजपति की पालकी आती है और फिर रथों की पूजा की जाती है।
बलराम जी के रथ को ‘तालध्वज’ जिसका रंग लाल और हरा होता है
रथयात्रा आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को प्रारम्भ होती है। रथ यात्रा के लिए बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए नीम की लकड़ियों से तीन अलग-अलग रथ तैयार किए जाते हैं। रथ यात्रा में सबसे आगे बलराम जी का रथ, बीच में देवी सुभद्रा और पीछे जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है। बलराम जी के रथ को ‘तालध्वज’ जिसका रंग लाल और हरा होता है, देवी सुभद्रा के रथ को ‘दर्पदलन’या’पद्मरथ’ कहा जाता है जो काले या नीले रंग का होता है। जबकि जगन्नाथ जी के रथ को ‘नंदिघोष’ या ‘गरुड़ध्वज’ कहते हैं जो लाल और पीले रंग का होता है। जगन्नाथ जी का ‘नंदिघोष’ 45.6 फीट ऊंचा, बलराम जी का तालध्वज 45 फीट ऊंचा और देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है। जगन्नाथ मंदिर से रथ यात्रा शुरू होकर 3 किलोमीटर दूर गुंडीचा मंदिर पहुंचती है। इस स्थान को भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार यहीं पर विश्वकर्मा ने इन तीनों प्रतिमाओं का निर्माण किया था,अतः यह स्थान जगन्नाथ जी की जन्म स्थली भी है। यहां तीनों देव 7 दिनों के लिए विश्राम करते हैं। आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ फिर से मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। वापसी की यह यात्रा बहुड़ा यात्रा कहलाती है। जगन्नाथ मंदिर पहुंचने के बाद वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव-विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है।